जहाँ एक ओर पूरी दुनिया कोरोना वायरस का मार झेल रही है तथा उससे बचने के उपाय तथा निवारण ढूंढ रही है, वहीं भारत में कुछ अजीबोगरीब घटनाएं हो रही हैं तथा बहस छिड़ी हुई है। घटना ये कि जहां एक और संपूर्ण विश्व में सोशल डिस्टेंसिंग व घरों से ना निकलने की बात चल रही है तो वहीं भारत में कहीं रामलला जी की शिफ्टिंग हो रही है, कहीं मंत्री शपथ ले रहे हैं, कहीं रैलियां हो रही हैं, तो कहीं थाली पीट-पीटकर जुलूस निकाला जा रहा है तो कहीं तबलीगी जमात की निजामुद्दीन मरकज में बैठक हो रही है।
13 मार्च को निजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात की बैठक होती है। इस बैठक में सऊदी अरब, मलेशिया तथा इंडोनेशिया सहित अन्य देशों के लगभग 300 लोग तथा भारत के अलग-अलग राज्यों से लगभग 2500-2700 लोग हिस्सा लेते हैं। इस प्रकार यह कुल संख्या 3000 के आसपास जाती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि 13 मार्च को ही दिल्ली सरकार ने एक दिशा निर्देश जारी किया था जिसमें यह कहा गया था कि एक स्थान पर 200 से अधिक लोग इकट्ठा नहीं हो सकते। यह आंकड़ा फिर 50 और 5 का हो गया। सवाल यह है कि सरकार के दिशा निर्देश के बावजूद यहां पर इतने व्यक्ति इकठ्ठा कैसे हुए? 13 मार्च के बाद भी कई दिशा-निर्देश जारी किए गए जैसे एक दिशा-निर्देश यह आया कि 16 मार्च से 50 से ज्यादा व्यक्ति एक स्थान पर इकट्ठा नहीं हो सकते। फिर एक दिशा निर्देश आया कि 5 से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर इकट्ठे नहीं हो सकते। इन सब दिशा निर्देशों के बावजूद वहां से लोगों को अपने घरों को लौट जाने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? तबलीगी जमात के प्रमुख मोहम्मद साद खानदलवी सहित जमात के शीर्ष नेताओं ने जमात को क्यों रोके रखा? उन्होंने अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाई? सोशल डिस्टेंसिंग तो दूर मस्जिद में हाथ चूमने जैसी गतिविधियां भी हुई। इसके पहले मलेशिया में तबलीगी जमात की मीटिंग हुई थी जहां सऊदी अरब, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा कजाकिस्तान व अन्य देशों के लोगों ने हिस्सा लिया। यह मीटिंग फरवरी के महीने में आयोजित हुई थी। ऐसा माना गया कि मलेशिया के कारण आधा दर्जन देशों में कोरोनावायरस फैल गया क्योंकि वहां के बैठक में शामिल होने के बाद लोग अलग-अलग देशों में गए। ऐसे में निजामुद्दीन मरकज के बैठक में ऐसे लोगों को क्यों आने दिया गया? मौलाना साद ने यह सारी जानकारी सरकार से क्यों छुपाई?
18 मार्च को तेलंगाना के करीमनगर में 9 लोग को कोरोना पॉजिटिव पाए गए, जो जमात में शामिल होकर आए थे। इस घटना से सरकार व सुरक्षा एजेंसियों के कान खड़े हो गए। गृह मंत्रालय ने व सुरक्षा एजेंसियों ने सभी राज्यों को अलर्ट जारी कर दिया व निजामुद्दीन मरकज से बंगलेवाली मस्जिद को खाली कराने का अनुरोध किया गया जिसे मौलाना साद ने खारिज कर दिया।
देश में 22 मार्च को जनता कर्फ्यू तथा 23 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। इसके बावजूद बंगलेवाली मस्जिद खाली क्यों नहीं हुई? खबर आई कि मौलाना साद के ना मानने की स्थिति में 28 मार्च की रात 2:00 बजे मुख्य सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल को भेजा गया जिसके बाद 28 मार्च से मस्जिद खाली होनी शुरू हुई। जब पुलिस मस्जिद खाली करवा रही थी तब मस्जिद के लोग पुलिसकर्मियों पर व रास्तों पर थूक रहे थे। जिस बस से उन्हें ले जाया जा रहा था उस बस से भी वो लोगों पर थूक रहे थे। ऐसे में सवाल यह है कि मुसलमान कम्युनिटी द्वारा ऐसा जानलेवा कृत्य क्यों किया जा रहा था? यह पता होने के बावजूद कि इससे यह बीमारी बहुत खतरनाक रूप से पूरे देश में फैल सकती, है फिर भी ऐसा काम क्यों किया किया गया? क्या यह इरादतन हत्या के प्रयास से किसी भी प्रकार कम है? क्या फिदायिनी हमले का स्वरूप ऐसा नहीं होता? तिस पर यह लोग डॉक्टरों का सहयोग भी नहीं कर रहे व मेडिकल स्टाफ के साथ बदतमीजी भी कर रहे। सिलावतपूरा, इंदौर का एक वीडियो सामने आता है जिसमें कोरोना के संभावित मरीजों, जो मरकज से लौटे थे, कि जांच करने डॉक्टरों की एक टीम गई थी और उन पर वहां के स्थानीय लोगों ने थूकना, गालियां देना, व उन पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। इसमें डॉक्टरों को गंभीर चोटें आती हैं जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं।
जो मेडिकल स्टाफ फ्रंटलाइन पर खड़े होकर कोरोना से लड़ रहा है और हमारी रक्षा कर रहा है उनका इन जाहिलों के द्वारा ऐसा हश्र किया जा रहा है। क्या ऐसे कृत्य मानवीय कृत्यों में गिने जा सकते हैं? क्या इन जाहिलों कि शैतानों या आतंकवादियों से तुलना करना गलत है? क्या इस्लाम के नाम पर ये सभी कार्य क्षम्य हैं? मरकज प्रमुख के अनुसार लॉकडाउन के पश्चात लोग वहां फंस गए थे। यदि बात ऐसी थी तो प्रशासन को इत्तेला क्यों नहीं किया गया? मरकज के प्रमुखों के अनुसार वहां लगभग 1000 लोग मौजूद थे परंतु दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई करके लोगों को वहां से निकालना शुरू किया तो उनकी संख्या 2500 के आसपास पाई गई। ऐसी स्थिति में भी ऐसे गुमराह करने वाली बातें आखिर क्यों?
अब तक भारत में कोरोना के 2000 से अधिक मामलों की पुष्टि हुई है। जिसमें 20% से अधिक लोग तबलीगी जमात के हैं। देश में अब तक 50 से कुछ अधिक मौतें हुई हैं, जिसमें 19 लोग मरकज से संबंधित थे। 400 से अधिक ऐसे लोग कोरोना से प्रभावित पाए गए जो जमात में सम्मिलित हुए थे। अब आप सोच सकते हैं कि कुल 2000 मामलों में 400 केवल जमात वाले लोग हैं। गिनती और धरपकड़ अभी भी जारी है। इस्लाम और धर्म के नाम पर ऐसे कृत्यों की तुलना किससे की जाए?
लेकिन यहां ध्यान देने की बात यह है कि जितनी बड़ी गलती मुस्लिम समुदाय की है उतना ही बड़ा प्रशासनिक चूक का भी मामला है। जब 18 मार्च को तेलंगाना में जमात से संबंधित मामला पकड़ में आया था तो गृह मंत्रालय (अमित शाह) ने कोई कड़ा कदम क्यों नहीं उठाया? इतनी बड़ी लापरवाही कैसे? निजामुद्दीन थाना, मरकज के काफी करीब है तो क्या उनको भनक तक नहीं लगी कि यहां पर इतने अधिक लोगों की भीड़ जमा है? निजामुद्दीन क्षेत्र के विधायक कहां थे जब इतनी बड़ी भीड़ इकठ्ठा थी?
केंद्र सरकार के अनुसार लगभग 2000 विदेशी 1 जनवरी तक जमात में शामिल होने के लिए भारत आए। भारत सरकार ने सार्क देशों के आगे यह कहा था कि भारत में हवाई मार्ग से आने वाले यात्रियों पर भारत कोरोना के मद्देनजर जनवरी से ही नजर रखे हुए है। ऐसे में इतनी बड़ी चूक कैसे हुई?
इन सब बातों के इतर देश में अलग ही किस्म की बहस छिड़ी हुई है। लेफ्ट विंगर और तथाकथित सेक्युलर लोग इसे अलग रंग रूप में पेश कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस मामले को धार्मिक रूप दिया जा रहा है, मुस्लिम समुदाय को टारगेट किया जा रहा है व इस्लाम को बदनाम किया जा रहा है। यही आरोप अधिकतर मुस्लिम समुदाय भी लगा रहा है।ऐसे में मैं उनसे यह बात पूछना चाहूंगा कि जब हिंदू आतंकवाद, भगवा आतंक, हिंदुत्व, बजे गूंस तथा आरएसएस के गुंडे इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है तब वह इसका पुरजोर समर्थन करते हैं। क्या तब एक पूरे समुदाय को टारगेट नहीं किया जा रहा होता है? और तब वे इसके विरुद्ध आवाज़ क्यों नहीं उठाते हैं? सच्चाई यह है कि ये लेफ्टिस्ट और कुछ तथाकथित सेक्युलर लोग मुसलमान व वर्ग विशेष को लेकर प्रोटेक्टिव हो जाते हैं।ऐसे सेक्युलर लोग असल में एक ही पक्ष व समुदाय विशेष के पक्षकार होते हैं। असल में ऐसे कुछ सेक्युलर लोग शुद्ध सेक्युलर हैं ही नहीं। इनके सेकुलरिज्म में बहुत अशुद्धियां व मिलावट देखने को मिलती है।
इतनी बड़ी ग्लोबल क्राइसिस होने के बावजूद कुछ लोग मरकज वाली घटना को अन्य घटनाओं के साथ तुलना कर रहे हैं जो बहुत दुख की बात है।
कुछ लोगों का कहना है कि 13 मार्च को सरकार की तरफ से एक सूचना आई थी जिसमें कोरोना को महामारी घोषित नहीं किया गया था। जिसके कारण लोग मस्जिद में रुके रहे। उन्हें पता होना चाहिए कि दिल्ली सरकार ने ठीक उसी दिन एक एडवाइजरी जारी किया था जिसमें कहा गया था कि 200 से अधिक लोग एक जगह इकट्ठा नहीं हो सकते हैं।
कुछ यह कह रहे हैं कि जनता कर्फ्यू 22 मार्च को व लॉकडाउन 23 मार्च को लगाया गया था। तो इस प्रकार मुस्लिम समुदाय ने कोई उल्लंघन नहीं किया। तो ऐसे लोगों को यह समझना होगा कि हर व्यक्ति की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह अपने स्तर पर स्वयं का बचाव करें व दूसरों को खतरे में ना डालें।
कुछ यह कह रहे हैं कि योगी जी ने भी रामलला के शिफ्टिंग का आयोजन किया था। ऐसे में उन्हें यह भी देखना चाहिए कि उनकी संख्या मात्र 20 की थी व पूरी स्कैनिंग की गई थी। और अगर इन लोगों ने आंख-कान खुला रखा होगा तो अवश्य ही देखे-सुने होंगे कि इस मामले को भी धर्म से जोड़कर देखा गया था (समुदाय विशेष के द्वारा)।
कुछ लेफ़्टिस्ट और तथाकथित सेक्युलर लोग यह कह रहे हैं कि जब लॉकडाउन हुआ तब हजारों दिहाड़ी मजदूर सड़कों पर थे। ऐसे में उन्हें समझना होगा कि इन मजदूरों के पास खाने-पीने तक के लाले पड़े थे व इनके बाल बच्चे भी थे। तो इस प्रकार उनके पास सैकड़ो किलोमीटर पैदल चल के घर पहुंचने के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं था जबकि तबलीगी जमात के पास विकल्प थे। ऐसे लोग यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि मजदूर वर्ग शौक से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चला होगा।
बेशक सरकारें पहले से तैयारी करके मजदूर वर्ग के लोगों के लिए खाने, रहने व उनके स्वास्थ्य का इंतजाम कर सकती थी परंतु नहीं कर पाई। इसकी भर्त्सना भी की जानी चाहिए। जहां हिंदू वर्ग का कोई अपराध करता है, तो हिंदू कहना होगा। जहां मुसलमान वर्क का कोई अपराध करता है, तो मुसलमान कहना ही होगा।
लेकिन त्रासदी इस बात की है कि तथाकथित सेक्युलर लोग सेकुलरिज्म का चोला ओढ़कर समुदाय विशेष की वकालत करते हैं व देश की स्थिरता को खतरे में डालते हैं।
13 मार्च को निजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात की बैठक होती है। इस बैठक में सऊदी अरब, मलेशिया तथा इंडोनेशिया सहित अन्य देशों के लगभग 300 लोग तथा भारत के अलग-अलग राज्यों से लगभग 2500-2700 लोग हिस्सा लेते हैं। इस प्रकार यह कुल संख्या 3000 के आसपास जाती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि 13 मार्च को ही दिल्ली सरकार ने एक दिशा निर्देश जारी किया था जिसमें यह कहा गया था कि एक स्थान पर 200 से अधिक लोग इकट्ठा नहीं हो सकते। यह आंकड़ा फिर 50 और 5 का हो गया। सवाल यह है कि सरकार के दिशा निर्देश के बावजूद यहां पर इतने व्यक्ति इकठ्ठा कैसे हुए? 13 मार्च के बाद भी कई दिशा-निर्देश जारी किए गए जैसे एक दिशा-निर्देश यह आया कि 16 मार्च से 50 से ज्यादा व्यक्ति एक स्थान पर इकट्ठा नहीं हो सकते। फिर एक दिशा निर्देश आया कि 5 से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर इकट्ठे नहीं हो सकते। इन सब दिशा निर्देशों के बावजूद वहां से लोगों को अपने घरों को लौट जाने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? तबलीगी जमात के प्रमुख मोहम्मद साद खानदलवी सहित जमात के शीर्ष नेताओं ने जमात को क्यों रोके रखा? उन्होंने अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाई? सोशल डिस्टेंसिंग तो दूर मस्जिद में हाथ चूमने जैसी गतिविधियां भी हुई। इसके पहले मलेशिया में तबलीगी जमात की मीटिंग हुई थी जहां सऊदी अरब, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा कजाकिस्तान व अन्य देशों के लोगों ने हिस्सा लिया। यह मीटिंग फरवरी के महीने में आयोजित हुई थी। ऐसा माना गया कि मलेशिया के कारण आधा दर्जन देशों में कोरोनावायरस फैल गया क्योंकि वहां के बैठक में शामिल होने के बाद लोग अलग-अलग देशों में गए। ऐसे में निजामुद्दीन मरकज के बैठक में ऐसे लोगों को क्यों आने दिया गया? मौलाना साद ने यह सारी जानकारी सरकार से क्यों छुपाई?
18 मार्च को तेलंगाना के करीमनगर में 9 लोग को कोरोना पॉजिटिव पाए गए, जो जमात में शामिल होकर आए थे। इस घटना से सरकार व सुरक्षा एजेंसियों के कान खड़े हो गए। गृह मंत्रालय ने व सुरक्षा एजेंसियों ने सभी राज्यों को अलर्ट जारी कर दिया व निजामुद्दीन मरकज से बंगलेवाली मस्जिद को खाली कराने का अनुरोध किया गया जिसे मौलाना साद ने खारिज कर दिया।
देश में 22 मार्च को जनता कर्फ्यू तथा 23 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। इसके बावजूद बंगलेवाली मस्जिद खाली क्यों नहीं हुई? खबर आई कि मौलाना साद के ना मानने की स्थिति में 28 मार्च की रात 2:00 बजे मुख्य सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल को भेजा गया जिसके बाद 28 मार्च से मस्जिद खाली होनी शुरू हुई। जब पुलिस मस्जिद खाली करवा रही थी तब मस्जिद के लोग पुलिसकर्मियों पर व रास्तों पर थूक रहे थे। जिस बस से उन्हें ले जाया जा रहा था उस बस से भी वो लोगों पर थूक रहे थे। ऐसे में सवाल यह है कि मुसलमान कम्युनिटी द्वारा ऐसा जानलेवा कृत्य क्यों किया जा रहा था? यह पता होने के बावजूद कि इससे यह बीमारी बहुत खतरनाक रूप से पूरे देश में फैल सकती, है फिर भी ऐसा काम क्यों किया किया गया? क्या यह इरादतन हत्या के प्रयास से किसी भी प्रकार कम है? क्या फिदायिनी हमले का स्वरूप ऐसा नहीं होता? तिस पर यह लोग डॉक्टरों का सहयोग भी नहीं कर रहे व मेडिकल स्टाफ के साथ बदतमीजी भी कर रहे। सिलावतपूरा, इंदौर का एक वीडियो सामने आता है जिसमें कोरोना के संभावित मरीजों, जो मरकज से लौटे थे, कि जांच करने डॉक्टरों की एक टीम गई थी और उन पर वहां के स्थानीय लोगों ने थूकना, गालियां देना, व उन पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। इसमें डॉक्टरों को गंभीर चोटें आती हैं जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं।
जो मेडिकल स्टाफ फ्रंटलाइन पर खड़े होकर कोरोना से लड़ रहा है और हमारी रक्षा कर रहा है उनका इन जाहिलों के द्वारा ऐसा हश्र किया जा रहा है। क्या ऐसे कृत्य मानवीय कृत्यों में गिने जा सकते हैं? क्या इन जाहिलों कि शैतानों या आतंकवादियों से तुलना करना गलत है? क्या इस्लाम के नाम पर ये सभी कार्य क्षम्य हैं? मरकज प्रमुख के अनुसार लॉकडाउन के पश्चात लोग वहां फंस गए थे। यदि बात ऐसी थी तो प्रशासन को इत्तेला क्यों नहीं किया गया? मरकज के प्रमुखों के अनुसार वहां लगभग 1000 लोग मौजूद थे परंतु दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई करके लोगों को वहां से निकालना शुरू किया तो उनकी संख्या 2500 के आसपास पाई गई। ऐसी स्थिति में भी ऐसे गुमराह करने वाली बातें आखिर क्यों?
अब तक भारत में कोरोना के 2000 से अधिक मामलों की पुष्टि हुई है। जिसमें 20% से अधिक लोग तबलीगी जमात के हैं। देश में अब तक 50 से कुछ अधिक मौतें हुई हैं, जिसमें 19 लोग मरकज से संबंधित थे। 400 से अधिक ऐसे लोग कोरोना से प्रभावित पाए गए जो जमात में सम्मिलित हुए थे। अब आप सोच सकते हैं कि कुल 2000 मामलों में 400 केवल जमात वाले लोग हैं। गिनती और धरपकड़ अभी भी जारी है। इस्लाम और धर्म के नाम पर ऐसे कृत्यों की तुलना किससे की जाए?
लेकिन यहां ध्यान देने की बात यह है कि जितनी बड़ी गलती मुस्लिम समुदाय की है उतना ही बड़ा प्रशासनिक चूक का भी मामला है। जब 18 मार्च को तेलंगाना में जमात से संबंधित मामला पकड़ में आया था तो गृह मंत्रालय (अमित शाह) ने कोई कड़ा कदम क्यों नहीं उठाया? इतनी बड़ी लापरवाही कैसे? निजामुद्दीन थाना, मरकज के काफी करीब है तो क्या उनको भनक तक नहीं लगी कि यहां पर इतने अधिक लोगों की भीड़ जमा है? निजामुद्दीन क्षेत्र के विधायक कहां थे जब इतनी बड़ी भीड़ इकठ्ठा थी?
केंद्र सरकार के अनुसार लगभग 2000 विदेशी 1 जनवरी तक जमात में शामिल होने के लिए भारत आए। भारत सरकार ने सार्क देशों के आगे यह कहा था कि भारत में हवाई मार्ग से आने वाले यात्रियों पर भारत कोरोना के मद्देनजर जनवरी से ही नजर रखे हुए है। ऐसे में इतनी बड़ी चूक कैसे हुई?
इन सब बातों के इतर देश में अलग ही किस्म की बहस छिड़ी हुई है। लेफ्ट विंगर और तथाकथित सेक्युलर लोग इसे अलग रंग रूप में पेश कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस मामले को धार्मिक रूप दिया जा रहा है, मुस्लिम समुदाय को टारगेट किया जा रहा है व इस्लाम को बदनाम किया जा रहा है। यही आरोप अधिकतर मुस्लिम समुदाय भी लगा रहा है।ऐसे में मैं उनसे यह बात पूछना चाहूंगा कि जब हिंदू आतंकवाद, भगवा आतंक, हिंदुत्व, बजे गूंस तथा आरएसएस के गुंडे इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है तब वह इसका पुरजोर समर्थन करते हैं। क्या तब एक पूरे समुदाय को टारगेट नहीं किया जा रहा होता है? और तब वे इसके विरुद्ध आवाज़ क्यों नहीं उठाते हैं? सच्चाई यह है कि ये लेफ्टिस्ट और कुछ तथाकथित सेक्युलर लोग मुसलमान व वर्ग विशेष को लेकर प्रोटेक्टिव हो जाते हैं।ऐसे सेक्युलर लोग असल में एक ही पक्ष व समुदाय विशेष के पक्षकार होते हैं। असल में ऐसे कुछ सेक्युलर लोग शुद्ध सेक्युलर हैं ही नहीं। इनके सेकुलरिज्म में बहुत अशुद्धियां व मिलावट देखने को मिलती है।
इतनी बड़ी ग्लोबल क्राइसिस होने के बावजूद कुछ लोग मरकज वाली घटना को अन्य घटनाओं के साथ तुलना कर रहे हैं जो बहुत दुख की बात है।
कुछ लोगों का कहना है कि 13 मार्च को सरकार की तरफ से एक सूचना आई थी जिसमें कोरोना को महामारी घोषित नहीं किया गया था। जिसके कारण लोग मस्जिद में रुके रहे। उन्हें पता होना चाहिए कि दिल्ली सरकार ने ठीक उसी दिन एक एडवाइजरी जारी किया था जिसमें कहा गया था कि 200 से अधिक लोग एक जगह इकट्ठा नहीं हो सकते हैं।
कुछ यह कह रहे हैं कि जनता कर्फ्यू 22 मार्च को व लॉकडाउन 23 मार्च को लगाया गया था। तो इस प्रकार मुस्लिम समुदाय ने कोई उल्लंघन नहीं किया। तो ऐसे लोगों को यह समझना होगा कि हर व्यक्ति की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह अपने स्तर पर स्वयं का बचाव करें व दूसरों को खतरे में ना डालें।
कुछ यह कह रहे हैं कि योगी जी ने भी रामलला के शिफ्टिंग का आयोजन किया था। ऐसे में उन्हें यह भी देखना चाहिए कि उनकी संख्या मात्र 20 की थी व पूरी स्कैनिंग की गई थी। और अगर इन लोगों ने आंख-कान खुला रखा होगा तो अवश्य ही देखे-सुने होंगे कि इस मामले को भी धर्म से जोड़कर देखा गया था (समुदाय विशेष के द्वारा)।
कुछ लेफ़्टिस्ट और तथाकथित सेक्युलर लोग यह कह रहे हैं कि जब लॉकडाउन हुआ तब हजारों दिहाड़ी मजदूर सड़कों पर थे। ऐसे में उन्हें समझना होगा कि इन मजदूरों के पास खाने-पीने तक के लाले पड़े थे व इनके बाल बच्चे भी थे। तो इस प्रकार उनके पास सैकड़ो किलोमीटर पैदल चल के घर पहुंचने के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं था जबकि तबलीगी जमात के पास विकल्प थे। ऐसे लोग यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि मजदूर वर्ग शौक से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चला होगा।
बेशक सरकारें पहले से तैयारी करके मजदूर वर्ग के लोगों के लिए खाने, रहने व उनके स्वास्थ्य का इंतजाम कर सकती थी परंतु नहीं कर पाई। इसकी भर्त्सना भी की जानी चाहिए। जहां हिंदू वर्ग का कोई अपराध करता है, तो हिंदू कहना होगा। जहां मुसलमान वर्क का कोई अपराध करता है, तो मुसलमान कहना ही होगा।
लेकिन त्रासदी इस बात की है कि तथाकथित सेक्युलर लोग सेकुलरिज्म का चोला ओढ़कर समुदाय विशेष की वकालत करते हैं व देश की स्थिरता को खतरे में डालते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 65% से अधिक कोरोना मरीज तबलीगी जमात के हैं.
ReplyDeleteबहुत शानदार लिखा है!👌
धन्यवाद भाई
Deleteहाँ भाई मैंने कई जगह अलग अलग आंकड़ा देखा था तो सबसे काम वाला लिखना सही लगा।